भ्रम

मैंने कुछ देर

उसके सिने में अपना चेहरा छिपा लिया।

मेरे कोशिश नकरने पर भी

उसकी धडकने,

मेरे कान की परदे पर दस्तक दे रहीं थी।

इस धुन को मै पहचानती हूँ!

बडा पुराना सा राग है वह,

मेरे तजुर्बे से भी पुराना!

मैं स्थिर खडी रही,

मेरी सांसों ने उसे

हल्का फूले होने का भ्रम दिया;

ठिक उसी तरह

जैसे उसे भ्रम था कि –

मैने उसके सिने को ‘आसमान’ मान लिया हो!

अब वह मुझे दूर से ही देखकर

‘ मुस्कान की मलम’ लगाने का भ्रम फैला रहा था,

इस बात से बेखबर की-

मुझे मालूम था,

उसका सिना मेरे लिए आसमान नहीं

बल्कि एक ‘साल’ वृक्ष के छावं जैसा है,

जहाँ

बहोत देर पहाड़ चढाने के बाद

मैं बैठ गई थी!

मुझे पता था-

यह साल वृक्ष का छावं

धूप के ढलते ही गायब हो जाएगा,

पर उसे मेरे भ्रम टूटने का डर सता रहा था….

डॉ इप्सिता प्रधान

One thought on “भ्रम

  1. विक्रमादित्य सिंह, अध्यक्ष, विश्व हिंदी परिषद, ओड़िशा प्रदेश says:

    प्रेम यात्रा का सुंदर चित्रण
    कहीं कहीं वर्तनी अशुद्धि है लेकिन भाव अक्षरशः विशुद्ध

    बहुत बहुत बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएं

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