‘रूमी’ को पढनेवाली लडकी


मुझे, तुम –
किसी बेवफाई या जुदाई का किस्सा,
न सुनाया करो;
मैं किसी मेहबूब से नहीं,
बल्की –
मोहब्बत से मोहब्बत करती हूँ!
मैं ‘रूमी’ को पढनेवाली लडकी हूँ,
मैं तो –
आसमान, मिट्टी, समन्दर, पहाड़
चांदनी, दरिया, बारिश, हवा,
यहां तक –
पर-कटे परीन्दे में भी महब्बत को
पा लेती हूँ।

मुझसे –
वह दिवार या दिलों का खाक छानना
काहाँ मुमकिन हुआ आज तक?
मैं तो शदियों से
खुले मैदान में ही डेरा डालती हूँ;
मैं तो ‘रूमी’ को पढनेवाली लडकी हूँ –
मुझसे दिल तोडऩे का मजाक न किया करो-
मैं तो जिंदगी के दोपहर को भी,
मोहब्बत की रोशनी से सजाती हूँ!

मुझे, तुम –
शिकायत की मजबूरी का पाठ न पढाना,
मैं ‘रूमी’ को पढनेवाली लडकी हूँ –
मैं तो इबादत भी
महोब्बत के कलमें से करती हूँ!
उन ऊंची इमारतों की
सुनी गलियों का पता न देना मुझे;
मैं तो रोज उसके खुदाई से,
अपने रुह को नहलाती हूँ!
मुझे इश्क, खुदा और ‘उसकि’ याद सताती है
तब भी मैं-
रूमी को पढती हूँ!
मैं ‘रूमी’ को पढनेवाली लडकी हूँ,
जिंदगी को ऊमर या नफा-नुक्सान से नहीं
बल्कि-
मोहब्बत से नापती हूँ……
मैं ‘रूमी’ को पढनेवाली लडकी हूँ,
मोहब्बत से मोहब्बत करती हूँ।

डॉ इप्सिता प्रधान

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